कहते हैं कि जब अग्निवेश तन्त्र में समाहित यथार्थ ज्ञान की धारा बही थी तब पञ्चमहाभूत नाच उठे थे

☘️💦🌹
घने और मनोहारी वनों के मध्य प्रकृति की गोद में गंभीर विचार-विमर्श हुआ। विचार-विमर्श तो क्या, असल में यह बड़ा लम्बा शिक्षण सत्र था| यह एक जरूरी सत्र था| जानकारी तो बहुत से वैज्ञानिकों के पास तब तक पहुँच चुकी थी परन्तु उनमें से एक वैज्ञानिक ने तय किया कि ज्ञान को अनेक विद्वानों के बीच प्रसार करना आवश्यक है| इस कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या अधिक नहीं थी| केवल छः लोग ही थे| इसमें विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने की आज़ादी भी थी| यों कहें कि शिक्षक के माथे से जानकारी निकलवाने में इन प्रश्नों की बड़ी भूमिका थी| इन छः विद्यार्थियों ने बड़ी मेहनत किया| आज विशेष कारणवश सभी पुनः एकत्र हुये थे| आज कुछ ख़ास होना था|

जी हाँ, हम उस शिक्षा सत्र के बारे में बात कर रहे हैं जो कम से कम 5000 से 7000 साल पहले आत्रेय पुनर्वसु ने अपने छः दिग्गज विद्यार्थियों के लिये आयोजित किया था| आज तक ज्ञात दुनिया की किसी भी चिकित्सा पद्धति में आयोजित किया गया यह सबसे पहला शिक्षण सत्र था जिसके प्रमाण अभी भी मौजूद हैं| इस कक्षा के एक विद्यार्थी ने तो इतिहास रच दिया| इस विद्यार्थी ने विश्व को चिकित्सा शास्त्र का पहला सम्पूर्ण ग्रन्थ दिया|

पुनर्वसु आत्रेय ने इस शिक्षा सत्र को आयोजित करने के लिये बड़ी मेहनत और निष्ठा से अपना समय और श्रम लगाया था| वे अपने 6 शिष्यों–अग्निवेश, भेल, जतूकर्ण, पराशर, हारीत और क्षारपाणि–को आयुर्वेद की गंभीर विधा से परिचय करा चुके थे। उन्होंने अपने सभी शिष्यों पर बड़ी मेहनत की थी| ज्ञान भी उन्होंने सबको एक साथ ही दिया और सबको बराबर ही बांटा था।

लेकिन आज ऐसी क्या खास बात थी जिस पर पूरी दुनिया की नजर आज इन 7 दिग्गजों के ऊपर थी? देवताओं ने भी अपने कान खड़े कर रखे थे और वह भी बड़े ध्यान से आज विचार-विमर्श और निर्णय सुनने को आतुर थे।

आज कॉपी जंचने वाली थी! दरअसल बात यह थी कि आज पुनर्वसु आत्रेय के सभी शिष्य अपनी-अपनी संहिताओं की रचना पूरी कर के लाये थे| आचार्य को आज इन्हें अनुमोदित करना था। पुनर्वसु आत्रेय ने सभी संहिताओं को सुना, जाँचा-परखा और सब को अनुमोदित कर दिया| लेकिन उनमें से एक संहिता ऐसी थी जो मानवता के कल्याणार्थ इतनी उच्चकोटि की बन पड़ी थी कि आचार्य तो मंत्रमुग्ध थे ही, देवताओं को भी एक स्वर में बहुत-अच्छे बहुत-अच्छे कहना पड़ गया। यह पुनर्वसु आत्रेय के महान शिष्य अग्निवेश का तन्त्र था|

कहते हैं कि जब अग्निवेश तन्त्र में समाहित यथार्थ ज्ञान की धारा बही थी केवल देवताओं ने ही वेल-डन नहीं बोला था| सम्पूर्ण पंचमहाभूत नाच उठे थे| सुखद हवायें चल पड़ीं थीं| सभी दिशायें आलोकित हो गयी थीं| सजल और दिव्य पुष्पों की वर्षा हुई थी| बुद्धि, सिद्धि, स्मृति, मेधा, धृति, कीर्ति, क्षमा और दया जैसे ज्ञान-देवता अग्निवेश और उनके सहपाठियों की संहिताओं में स्वयं प्रवेश किया था। दिग्गज महर्षि-वैज्ञानिकों द्वारा अनुमोदित वे तन्त्र पूरी दुनिया में ऐसे प्रतिष्ठापित हुये कि आज तक मानवता का कल्याण किये जा रहे हैं।

यहाँ तक कि आज की बात करें तो इस ज्ञान ने न केवल देश-विदेश के पांच लाख आयुर्वेदाचार्यों को आजीविका का साधन दिया है, बल्कि देश में 2,420 आयुर्वेदिक अस्पताल, मरीजों के लिये 42,271 बिस्तर, 15,017 औषधालय, 320 से अधिक शैक्षणिक संस्थान एवं 7,699 दवा विनिर्माण इकाइयां भी इसी ज्ञान की दम पर खड़े हुये हैं| और, हजारों साल से भारत इसी ज्ञान की दम पर स्वस्थ रहा आया है।

—डॉ. दीप नारायण पाण्डेय

सन्दर्भ–
बुद्धेर्विशेषस्तत्रासीन्नोपदेशान्तरं मुनेः|
तन्त्रस्य कर्ता प्रथममग्निवेशो यतोऽभवत्||
अथ भेलादयश्चक्रुः स्वं स्वं तन्त्रं कृतानि च|
श्रावयामासुरात्रेयं सर्षिसङ्घं सुमेधसः||
श्रुत्वा सूत्रणमर्थानामृषयः पुण्यकर्मणाम्|
यथावत्सूत्रितमिति प्रहृष्टास्तेऽनुमेनिरे||
सर्व एवास्तुवंस्तांश्च सर्वभूतहितैषिणः|
साधु भूतेष्वनुक्रोश इत्युच्चैरब्रुवन् समम्||
तं पुण्यं शुश्रुवुः शब्दं दिवि देवर्षयः स्थिताः|
सामराः परमर्षीणां श्रुत्वा मुमुदिरे परम्||
अहो साध्विति निर्घोषो लोकांस्त्रीनन्ववा(ना)दयत्|
नभसि स्निग्धगम्भीरो हर्षाद्भूतैरुदीरितः||
शिवो वायुर्ववौ सर्वा भाभिरुन्मीलिता दिशः|
निपेतुः सजलाश्चैव दिव्याः कुसुमवृष्टयः||
अथाग्निवेशप्रमुखान् विविशुर्ज्ञानदेवताः|
बुद्धिः सिद्धिः स्मृतिर्मेधा धृतिः कीर्तिः क्षमा दया||
तानि चानुमतान्येषां तन्त्राणि परमर्षिभिः|
भ(भा)वाय भूतसङ्घानां प्रतिष्ठां भुवि लेभिरे||
–च.सू.1.32-40

Leave a comment