आयुर्वेद की सत्त्वावजय चिकित्सा भारत को मनोरोगों की वैश्विक राजधानी बनने से बचा सकती है

IMG_7145मानसिक बीमारी का वैश्विक बोझ कुल 32.4 प्रतिशत इयर्स लिव्ड विद डिसेबिलिटी और कुल 13 प्रतिशत डिसेबिलिटी एडजस्टेड लाइफ इयर्स या विकलांगता-समायोजित जीवन-काल के बराबर है। इनमें से एक तिहाई प्रकरण केवल चीन और भारत में हैं जो कि सभी विकसित देशों से अधिक हैं। पूरी दुनिया की तरह भारत में भी मानसिक रोगों का बोझ बढ़ता जा रहा है। रोगों के मामले में भारत की स्थिति अन्य विकासशील देशों जैसी है जबकि चीन की स्थिति विकसित देशों के समान दिखती है। वर्ष 2013 से 2025 के बीच मानसिक, न्यूरोलॉजिकल और मादक द्रव्यों के विकारों के बोझ में चीन में 10 प्रतिशत और भारत में 23 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान लगाया गया है। आंकड़े यह भी स्पष्ट करते हैं कि मानसिक, न्यूरोलॉजिकल और मादक पदार्थों के उपयोग से उत्पन्न विकारों के बोझ में 1990 से 2010 के बीच 41 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। तात्पर्य यह है कि अब विश्वभर में स्वास्थ्य के खाते नष्ट हो रहे हर 10 में एक साल मानसिक बीमारियों के खाते में आता है। ग्लोबल इकोनोमिक फोरम के लिये किये गये एक अध्ययन का अनुमान है कि केवल मानसिक विकृतियों के कारण आर्थिक उत्पादन में कमी का 20 वर्षों में संचयी वैश्विक प्रभाव 16 ट्रिलियन डॉलर तक हो सकता है, जो वैश्विक जीडीपी के 25% के बराबर है। ध्यान दीजिये, इन आंकड़ों में इन बीमारियों से संबंधित मृत्यु दर या प्रभावित व्यक्तियों, उनकी देखभाल करने वालों और समाज पर मानसिक विकारों के कारण होने वाले सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणाम शामिल नहीं हैं। यह एक बहुत बड़ी वैश्विक स्वास्थ्य समस्या है जिसका समाधान खोजना अनिवार्य है। आज की चर्चा आयुर्वेद द्वारा मानसिक रोगों से बचाव पर केन्द्रित है।

आयुर्वेद की दृष्टि से देखें तो मानसिक रोगों को चार समूहों में बांटा जा सकता है। पहला, ऐसे मानसिक रोग जिनकी उत्पत्ति मूलतः मानसिक कारणों से होती है और लक्षण भी मुख्य रूप से मानसिक ही प्रकट होते हैं। इनमें उन्माद (साइकोसिस), दृष्टिभ्रम, स्मृतिनाश, काम, क्रोध, शोक, चिन्ता, भय आदि सम्मिलित है। दूसरा, ऐसे रोग जिनकी उत्पत्ति मूलतः मानसिक कारणों से, किन्तु लक्षण मुख्यतः शारीरिक दिखाई देते हैं। इनमें अपस्मार (एपिलेप्सी), अपतंत्रक (हिस्टीरिया), निद्रानाश (इनसोम्निया), शोकज व भयज अतिसार, शोकज व काम ज्वर आदि हैं। तीसरे समूह में ऐसे रोग हैं जिनकी उत्पत्ति मुख्यतः भौतिक-शारीरिक होती है किन्तु लक्षण मुख्य रूप से मानसिक दिखाई पड़ते हैं। इनमें अतत्वाभिनिवेश (ओब्सेसन, शिजोफ्रेनिया, हठपूर्वक सत्य को असत्य व असत्य को सत्य समझने जैसी स्थिति), मद आदि शामिल हैं। चौथे समूह में मूलतः शारीरिक रूप से उत्पन्न होने वाली व शारीरिक लक्षण वाली समस्यायें जैसे मूर्च्छा व सन्यास (फेन्टिंग व कॉमा) जैसे रोग शामिल हैं। यह स्थूल वर्गीकरण है और प्रत्येक श्रेणी को रोगों के समुच्चय के रूप में देखा जा सकता है, अतः आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में विविध नामों से समझे जाने वाले तमाम मानसिक रोग इनमें समाहित पाये जाते हैं।

आयुर्वेद की दृष्टि में इन रोगों का मूल हेतु, कारण या आयुर्वेद की भाषा में कहें तो निदान, अंततः अल्प-सत्त्व की स्थिति या सात्विक प्रवृत्ति की कमी व राजसिक तथा तामसिक प्रकृति की बढ़त में निहित है। स्वाभाविक है कि इन तमाम समस्याओं से मुक्ति भी सात्विक प्रवृत्तियों व क्रियाकलापों को बढ़ाकर ही पाई जा सकती है। आयुर्वेद में सात्विक प्रकृति को मजबूत रखने के लिए सद्वृत्त का पालन, आचार रसायन, योग, ध्यान, प्राणायाम आदि साधन हैं। सिर्फ़ गोलियां चबाने से मनोरोग नहीं जाते। युक्ति-व्यपाश्रय और सत्त्वावजय दोनों प्रकार की चिकित्सा चाहिये। दैव-व्यपाश्रय भी बहुत उपयोगी है, हालाँकि सत्त्वावजय और दैव-व्यपाश्रय के मध्य अंतर बहुत सूक्ष्म है। असल में आयुर्वेद चिकित्सा को समग्र रूप से देखा जाये तो रोगों को साईकोसोमोटिक प्रकृति का ही माना जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि कोई भी मानसिक व्याधि शारीरिक व मानसिक दोनों ही प्रभाव डालती है। उदाहरण के लिये वात के बढ़ने पर अनिद्रा या पित्त बढ़ने के कारण मूर्छा या क्रोध दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार कफ बढ़ने से तन्द्रा एवं निद्रा भी दिखाई पड़ती है। इसलिये वास्तव में बचाव या चिकित्सा का कोई अकेला सूत्र नहीं हो सकता, बल्कि सत्त्वावजय, दैव-व्यपाश्रय व युक्ति-व्यपाश्रय तीनों ही प्रकार एक साथ प्रयुक्त होते हैं।

मूलतः युक्ति-व्यापाश्रय का अर्थ औषधि, रसायन एवं आहार द्रव्यों के साथ-साथ जीवन-शैली (दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या), पंचकर्म आदि की प्रमाण-आधारित योजना व क्रियान्वयन है। सत्त्वावजय का अर्थ सत्य-आधारित आत्म-नियंत्रण या मन को नियंत्रित कर या जीत कर जय प्राप्त करना है। सत्त्वावजय में आत्म-नियंत्रण के द्वारा अहितकारी विषयों से मन को हटाना है।

लोगों के लिये इस चर्चा का महत्त्व क्या है? हमें प्रतिदिन ऐसा क्या करना चाहिये कि हम मानसिक बीमारियों को दूर रख सकें? हमें यह समझना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य के बिना शारीरिक स्वास्थ्य संभव नहीं है। इसका तात्पर्य, उदाहरण के लिये यह हुआ कि न केवल हमें शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना है बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी बराबर निवेश करना चाहिये। रोजमर्रा के जीवन में संहिताओं और वैज्ञानिक शोध के मेलजोल से विकसित की गयी प्रमाण-आधारित सलाह उपयोगी हो सकती हैं।

पहली बात यह है कि भय मानसिक रोगों का बीज है। चूंकि असमर्थता भयकारी होती है: असमर्थता भयकराणाम् (च.सू. 25.40) अतः अपने आपको आर्थिक, सामाजिक एवं पर्यावरणीय रूप से सक्षम बनाना उपयोगी रहेगा। आजीविका की पूंजियों के सन्दर्भ में बात करे तो वित्तीय पूँजी (धन-संपत्ति आदि), भौतिक पूँजी (मकान, वाहन आदि), प्राकृतिक पूँजी (खेत-खलिहान, जल, जमीन आदि), सामजिक पूँजी (आपसी रिश्ते, मेलजोल की प्रगाढ़ता आदि) और मानव पूँजी (शिक्षा, ज्ञान, कौशल, स्वास्थ्य आदि) को बढ़ाते रहने के लिये जीवन में ठोस प्रयत्न आवश्यक है। इससे समर्थता में बढ़ोत्तरी, असमर्थता में कमी और परिणामस्वरूप भय नष्ट होगा। भय को नष्ट करना मानसिक रोगों का पहला निदान-परिवर्जन है।

दूसरा महत्वपूर्ण सूत्र है की मानसिक रोगों के हेतु का सेवन नहीं करें। आयुर्वेद की भाषा में कहें तो निदान-सेवन न किया जाये। इस सन्दर्भ में बृहदारण्यकोपनिषत् (5.5.2) का सिद्धांत उपयोगी है: द द द इति दाम्यत दत्त दयध्वमिति तदेतत्त्रय शिक्षेद्दमं दानं दयामिति। दम (आत्म-नियंत्रण), दान (दान, उपहार, गिफ्ट आदि), दया (सद्भावना, स्नेह, कल्याणार्थ परोपकार आदि) का मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत धनात्मक प्रभाव पड़ता है। अतः दम, दान और दया को जीवन का अंग बनाया जाना उपयोगी है। दम, दान और दया के सिद्धांत के साथ कोई भी समझौता नहीं किया जाये। यह आचार्य चरक के उस सिद्धांत से मेल खाता है जिसमें कहा गया है: इन्द्रियजयो नन्दनानाम् (च.सू. 30.15) अर्थात इन्द्रियों पर विजय या आत्म-नियंत्रण आनन्ददायी है। यह मानसिक रोगों का दूसरा निदान-परिवर्जन है।

तीसरी बात यह है कि अहंकार को एक विषम मानसिक-अग्नि के रूप में मानना चाहिये। इस विषमता का निदान-परिवर्जन या चिकित्सा युक्ति-व्यपाश्रय द्वारा नहीं बल्कि सत्वावजय द्वारा ही संभव है। चिकित्सा के अभाव में अंततः यह अहंकारी के दोष, धातु और मल जो शरीर के मूल हैं, को भोज्य बनाकर आयु का नाश करता है। अहंकारी के अहंकार का पोषण या वृद्धि स्वयं या अन्य अहंकारी का अहंकार ही करता है। सत्त्वावजय के द्वारा प्राप्त होने वाली विनम्रता ही अहंकार ह्रास कर सकती है। चूंकि अहंकार अंतःउद्भूत है और अहंकारवश अन्य की बात सुनना या मानना मुश्किल होता है, अतः सत्त्वावजय ही लाभदायक है। अहंकार से दूर रहना यह मानसिक रोगों का तीसरा निदान-परिवर्जन है।

चौथा सुझाव यह है कि व्यायाम, योग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान इत्यादि प्रतिदिन करना बहुत उपयोगी है। आयुर्वेद के स्वस्थवृत्त, सद्वृत्त, आहार, विहार, रसायन आदि का नित्य प्रयोग सदा स्वस्थ रहने की कुंजी है। आंख, नाक, कान, जीभ व चमड़ी मन के नियंत्रण हों तो मानसिक ही क्या कोई रोग नहीं होते (च.शा., 2.43: सत्याश्रये वा द्विविधे यथोक्ते पूर्वं गदेभ्यः प्रतिकर्म नित्यम्जितेन्द्रियं नानुपतन्ति रोगास्तत्कालयुक्तं यदि नास्ति दैवम्।।

पांचवें समूह में अनेक बातें एक साथ सम्हालना है। इन बातों या सलाह को पृथक-पृथक नहीं बल्कि समग्रता में साथ लेकर चलना होगा। महर्षि चरक द्वारा निर्दिष्ट आहार, विहार, और आचार रसायन की युक्तियुक्त त्रिस्तरीय व्यूहरचना के माध्यम से शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य सम्हालने का मूलमन्त्र देखिये (च.शा., 2.46-47): नरो हिताहारविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः। दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।। मतिर्वचः कर्म सुखानुबन्धं सत्त्वं विधेयं विशदा च बुद्धिः। ज्ञानं तपस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोगाः।। इसी प्रकार हितकर भोजन व जीवन-शैली, समीक्षात्मक दृष्टिकोण, लोभ-लालच, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि विषय-विकारों से मुक्त, उदार और दानी, समत्व-युक्त, सत्यनिष्ठ, क्षमावान, और महान लोगों के प्रति सेवाभावी व्यक्ति निरोगी रहता है। इसी प्रकार सुखदायी मति, बातचीत और कार्य वाले, सच्चाई-युक्त-अनुशासित, विशाल या निर्मल बुद्धि-युक्त, ज्ञान, तप (शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति हेतु आत्म-नियंत्रण) एवं योग (चित्त की वृत्तियों के निरोध द्वारा आत्मस्थ होने का अनुशासन) में तत्पर व्यक्ति भी रोगों में नहीं फंसता। थोड़ा विस्तार से देखें तो हर परिस्थिति में समीक्षात्मक दृष्टिकोण रखते हुये कार्य संपादन एवं जीवनयापन करना; राग, द्वैष, लोभ, मोह, शोक आदि से दूर रहना; सदैव उदार रहते हुये लोगों की मदद, उपकार एवं दान करते रहना; सफलता-असफलता, सुख-दुख या लाभ-हानि की दशा में समत्व की स्थति में रहना; सत्यनिष्ठ रहते हुये परिवार एवं समाज के साथ व्यवहार करना उत्तम स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है। लोगों से परिस्थितिवश त्रुटियाँ संभाव्य हैं। ऐसी दशा में क्षमावान रहना और क्षमा करते रहना मन-मस्तिष्क के बोझ को दूर करता रहता है। ऐसे व्यक्तियों जिनके शब्द स्वयं ही प्रमाण हों, अर्थात् जिनका कहना सब लोग मानते हों या जो अपने से वरिष्ठ हों, उन सबके प्रति सद्भावी रहना स्वास्थ्य के लिये हितकर होता है। अपना मन, बातचीत और कार्य-व्यवहार सुखकारी रखना चाहिये। विशाल दृष्टिकोण रखना चाहिये। सीखने-समझने, आत्म-नियंत्रित रहने एवं योग में तत्पर रहना चाहिये।

–डॉ. दीप नारायण पाण्डेय
(यह लेखक के निजी विचार हैं और सार्वभौमिक कल्याण के सिद्धांतसे प्रेरित हैं|)

 

3 Comments Add yours

  1. Saurabh saraswat says:

    बहुत ही सुंदर और सरल तरीके से विषय को सभी के समक्ष प्रस्तुत किया गया है।

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  2. सत्त्वावजय–अहित अर्थों से मन का निग्रह करना सत्त्वावजय चिकित्सा है।मन का निग्रह धी, समाधि,ज्ञान, विज्ञान आदि के द्वारा किया जाता है।सत्त्वावजय को आधुनिक काल में प्रचलित मनो वैज्ञानिक चिकित्सा का पर्याय कहा जा सकता है।
    डॉ0पीयूष त्रिवेदी।आयुर्वेद विशेषज्ञ, राज0विधानसभा, जयपुर। 9828011871

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  3. सत्व, रज और तम तीन मानसिक गुण आयुर्वेद में 5000 ई0पूर्व वर्षो से वर्णित है।इन गुणों की असमानता मानस रोगों की उत्तपत्ति में सहायक है।
    डॉ0पीयूष त्रिवेदी,जयपुर(राज0),9828011871

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